आदि-कवि वाल्मीकि

The Parabrahm who is aimed through 24 syllabled Gayatri mantra of Vedas, that same Parabrahman (Rama) is sung and explained through 24,000 verses of Shri Valmiki Ramayana. Sage Valmiki composed Ramayana after seeing everything in deep Samadhi stage, It is the only scripture after Vedas which is completely in Samadhi bhasha (language).

वेदवेद्ये परेपुंसि जाते दशरथात्मजे ।
वेदः प्राचेतसादासीत् साक्षाद् रामायणात्मना ॥
(श्रीलवकुशकृत श्रीरामायण-मङ्गलाचरण । अगस्त्य-संहिता)

vēdavēdyē parēpuṃsi jātē daśarathātmajē ।
vēdaḥ prācētasādāsīt sākṣād rāmāyaṇātmanā ॥
(Śrī Lava-kuśa-kṛta Śrī Rāmāyaṇa-maṅgalācaraṇa । agastya-saṃhitā)

वेदवेद्य अर्थात् वेदों से हीं जाने जा सकने वाले परमपुरुष जब दशरथ के पुत्र रुप में प्रकट हुए, तब वेद हीं साक्षात् श्रीरामायण रुप में प्राचेतस श्रीवाल्मीकि मुनि के श्रीमुख से अवतीर्ण हुए।

“When the Param-Purusha (Śrī Rāma) who is known through Vedas only appeared as the son of Dasarath, then all Vedas appeared as the Rāmāyaṇa from the mouth of Vālmīki, the son of Prachetus.”

वाल्मीकिगिरिसम्भूता रामाम्भोनिधिसङ्गता ।
श्रीमद्रामायणी गङ्गा पुनाति भुवनत्रयम् ॥

vālmīki-giri-sambhūtā rāmāmbhōnidhi-saṅgatā ।
śrīmad-rāmāyaṇī gaṅgā punāti bhuvanatrayam ॥

श्रीवाल्मीकि रुपि पर्वत से उत्पन्न श्रीराम रुपि सागर मे मिलने वाली श्रीमद् रामायण रुपि गङ्गा तीनों लोकों को पवित्र करने वाली है ।

“Which is born from the Valmiki mountain and enters in the Rama ocean, that Ramayani Ganga river purifies all the three worlds (heaven, earth and netherworld).”

कूजन्तं रामरामेति मधुरं मधुराक्षरम् ।
आरुह्य कविताशाखां वन्दे वाल्मीकिकोकिलम् ॥

kūjantaṃ rāmarāmēti madhuraṃ madhurākṣaram ।
āruhya kavitāśākhāṃ vandē vālmīkikōkilam ॥

मैं वाल्मीकि नाम के कोयल को प्रणाम करता हूँ जो कवितावृक्ष के शाखा पर बैठ कर, मधुरस्वर में सुमधुर नाम “राम राम” गाती रहती है।

“I make salutation to Sage Valmiki who is singing Ram Naam as sweetly as a cuckoo singing on the branches of the tree of poetry!”

वाल्मीकेर्मुनिसिंहस्य कवितावनचारिणः ।
शृण्वन् रामकथानादं को न याति परां गतिम् ॥

vālmīkēr-muni-siṃhasya kavitā-vana-cāriṇaḥ ।
śṛṇvan rāma-kathā-nādaṃ kō na yāti parāṃ gatim ॥

कविता-वन मे विचरण करने वाले वाल्मीकि मुनि-सिंह के, रामकथा के गर्जन को सुनकर कौन परमगति को प्राप्त नहीं होता?

“Who does not get the Supreme abode of Bhagavan after hearing the roars of Shri Rama's story from the Valmiki lion who roams in the forest of poetry?”

यः पिबन्सततं रामचरितामृतसागरम् ।
अतृप्तस्तं मुनिं वन्दे प्राचेतसमकल्मषम् ॥

yaḥ pibansatataṃ rāmacaritāmṛtasāgaram ।
atṛptastaṃ muniṃ vandē prācētasamakalmaṣam ॥

मै उस निर्मल मुनि प्राचेतस को प्रणाम करता हूँ जो सदैव रामचरित रुपि अमृत सागर का पान करते हुए भी कभी तृप्त नहीं होते!

“I make salutation to the holy sage Prachetasa (Valmiki), who always keeps drinking the nectarine ocean in form of Shri Rama’s story, yet never feels satisfied!”

यावत्स्थास्यन्ति गिरयः सरितश्च महीतले ।
तावद्रामायणकथालोकेषु प्रचरिष्यति ॥
यावद्रामायणकथात्वत्कृता प्रचरिष्यति ।
तावदूर्ध्वमधश्च त्वम्मल्लोकेषु निवत्स्यसि ॥
(श्री वाल्मीकि रामायण १.२.३६-३७)

yāvatsthāsyanti girayaḥ saritaśca mahītalē ।
tāvadrāmāyaṇakathālōkēṣu pracariṣyati ॥
yāvadrāmāyaṇakathātvatkṛtā pracariṣyati ।
tāvadūrdhvamadhaśca tvammallōkēṣu nivatsyasi ॥
(Śrī Vālmīki Rāmāyaṇa 1.2.36-37)

ब्रह्मा जी ने श्रीवाल्मीकिमुनि को यह वरदान दिया —
जबतक इस धराधाम पर पहाड और नदियाँ रहेंगी, तब तक इस लोक में रामायण की कथा का प्रचार रहेगा ॥३६॥ जबतक तुम्हारी रची हुई रामायण की कथा का लोकों (और अलोकों अर्थात् वैकुण्ठ, साकेत इत्यादि नित्य विभूति) में प्रचार रहेगा, तब तक तुम (तुम्हारा यश भी) मेरे बनाये हुए लोको में और उनके भी उर्ध्व लोक (वैकुण्ठ, साकेत) में निवास करोगे (स्थिर रहेगा) ॥३७॥

Lord Brahma (an agent of Sri Ram) bestowed this boon to Brahmarshi Valmiki (on behalf of Shri Ram)—
“As long as the mountains and even rivers flourish on the surface of the earth (means till the complete dissolution - Mahapralaya), so long the legend of Ramayana will flourish in the worlds. ॥36॥

As long as Shri Rama's legend authored by you flourishes....till then you will flourish in heavenly (Vaikuntha), in netherworlds, and in my abode, namely Satyaloka - the Abode of BrahmA. ॥37॥”

ब्रह्मर्षि वाल्मीकि ने आदि-काव्य श्रीमद रामायण की रचना कर सर्वलोकों के इष्ट सभी को रमाने वाले भगवान श्री राम के दिव्य चरित्र से सभी को अवगत कराया। शायद हीं कोई ऐसा होगा जो वाल्मीकि रामायण के रचयिता भगवान श्री राम के परम-भक्त ब्रह्मर्षि वाल्मीकि का नाम न सुना हो! उन्हीं द्वारा रचित वाल्मीकि रामायण का अध्ययन कर महर्षि वेद-व्यास ने महाभारत और १८ पुराणों की रचना की। बहुत कम लोग हीं जानते होंगे कि आदि-कवि वाल्मीकि भगवान श्री श्री सीताराम के मधुरोपासक भक्त थे, तभी वाल्मीकि रामायण में उन्होंने भगवान श्री श्री सीताराम के परम माधुर्य का बहुत हीं सजीव एवं मनोहारी वर्णन किया है।

ब्रह्मर्षि वाल्मीकि कौन थे ?

विष्णुधर्मोत्तर पुराण के अनुसार ब्रह्मर्षि वाल्मीकि वस्तुतः भगवान श्री विष्णु के अंश-कला थे, जब स्वयं भगवान श्री राम त्रेता युग में धरा पे अवतीर्ण हुए तब सारे वेद हीं श्रीमद रामायण के रूप में आदि-कवि ब्रह्मर्षि वाल्मीकि के मुख से प्रगट हो गए। वही प्रचेतस के दसवें पुत्र थे, उनका जन्म दिव्य रूप से प्रचेतस से हुआ था। "आदि कवि" वाल्मीकि (अपने पिता प्रचेतस के श्रापवश कुछ काल के लिए) जीवन के प्रारंभ में किरात-कर्म में पड़ गए थे, परन्तु बाद में दिव्य सप्त-ऋषियों से प्राप्त अमोघ मन्त्र श्री राम नाम का जप कर ब्रह्मर्षि पद को प्राप्त कर वो ब्रह्म के समान हो गए।

रामायण के उत्तरकांड में वाल्मीकि मुनि स्वयं को प्रचेता का पुत्र बताते हैं:

प्रचेतसोऽहं दशमः पुत्रो राघवनन्दन। [वाल्मीकि रामायण ७.९६.१५]

हे राघव! मैं प्रचेतस का दसवाँ पुत्र वाल्मीकि हूँ।

प्रचेतस ब्रह्मा जी के मानस पुत्र हैं, इन्हें वरुण-देव भी कहा जाता है :-

मरीचिं अत्र्यङ्गिरसौ पुलस्त्यं पुलहं क्रतुम् ।
प्रचेतसं वसिष्ठं च भृगुं नारदं एव च ॥ [ मनुस्मृति १.३५ ]

प्रचेतस के श्राप के कारन हीं वाल्मीकि जी को कुछ कालवश पृथ्वी पे जीविकोपार्जन के लिए डाकुओं-किरातों का संग करना पड़ा। प्रचेतस ने अपने पुत्र (वाल्मीकि को) ऐसा श्राप दिया था, और जब बालक वाल्मीकि ने अपने पिता को समझाया कि उनकी कोई गलती नहीं है, तब प्रचेतस को अपने द्वारा दिए गए श्राप पे बहुत खेद होने लगा, और उन्होंने यह आशीर्वाद दिया कि भविष्य में तुम्हें ऋषि-कृपा से एक अमोघ मन्त्र की प्राप्ति होगी और उस मन्त्र के जाप के फलस्वरूप तुम्हारी कीर्ति सभी लोकों में फैलेगी! उनके पिता द्वारा दिया गया वह श्राप हीं उनके लिए परम वरदान बन गया।

उसी राम नाम का उपदेश उन्हें सप्तर्षियों ने दिया, और वाल्मीकि उल्टा जाप कर आदि-कवि ब्रह्मर्षि वाल्मीकि बन गए और ब्रह्म के समान हो गयें और उन्होंने परम मनोहर श्रीमद रामायण महाकाव्य की रचना की!

गोस्वामी जी ने स्पष्ट कहा है : - जान "आदिकबि" नाम प्रतापू । भयउ "सुद्ध" करि "उलटा जापू" ॥

जान आदिकबि नाम प्रतापू। भयउ सुद्ध करि उलटा जापू॥
सहस नाम सम सुनि सिव बानी। जपि जेईं पिय संग भवानी॥श्री रामचरितमानस १.१९.३॥

भावार्थ:-आदिकवि श्री वाल्मीकिजी रामनाम के प्रताप को जानते हैं, जो उल्टा नाम ('मरा', 'मरा') जपकर पवित्र हो गए। श्री शिवजी के इस वचन को सुनकर कि एक राम-नाम सहस्र नाम के समान है, पार्वतीजी सदा अपने पति (श्री शिवजी) के साथ राम-नाम का जप करती रहती हैं॥3॥

यहाँ गोस्वामी जी आदिकवि वाल्मीकि के बारे में बता रहे हैं कि वो उल्टा नाम जप कर के शुद्ध हो गए, यहाँ उल्टा नाम जप का भी परम-प्रभाव है, यही तो राम नाम कि विशेषता है!

आदि कवि वाल्मीकि स्वयं अध्यात्म रामायण में कह रहे हैं :-

राम त्वन्नाममहिमा वर्ण्यते केन वा कथम् ।
यत्प्रभावादहं राम ब्रह्मर्षित्वमवाप्त्वान् ॥ [अध्यात्म रामायण २.६.६०]

हे श्री राम! जिसके प्रभाव से मैंने ब्रह्मर्षि-पद को प्राप्त किया है, आपके उस नाम की महिमा कोई किस प्रकार वर्णन कर सकता है?

अहं पुरा किरातेषु किरातैः सह वर्धितः ।
जन्ममात्रद्विजत्वं मे शूद्राचाररतः सदा ॥ [अध्यात्म रामायण २.६.६१]

मैं पहले किरातों के साथ रहता था और उन्ही के साथ बड़ा हुआ, मैं जन्म से तो ब्राह्मण था, परन्तु सदा शूद्राचार में रत था।


एक बार किरात-वाल्मीकि की भेंट वन में सप्तर्षि से हुई, और उन्होंने वाल्मीकि पे कृपा करके मरा-मरा (राम नाम का उल्टा मरा मरा) जपने को कहा:

इत्युक्त्वा राम ते नाम व्यत्यस्ताक्षरपूर्वकम् ।
एकाग्रमनसात्रैव मरेति जप सर्वदा ॥ [अध्यात्म रामायण २.६.८०]

हे राम! ऐसा विचारकर उन्होंने आपके नामाक्षरों का उल्टा करके मुझसे कहा कि -तुम इसी स्थान पे रहके 'मरा-मरा' (राम नाम का उल्टा) जाप करो ।

यहाँ पे विचारणीय तथ्य है कि आखिर सप्तर्षियों ने राम नाम के नामाक्षरों "रा" और "म" का उल्टा जाप करने को क्यूँ कहा?

इसका उत्तर बहुत गुढ़ है -

पहला उत्तर (१). "म" का अर्थ श्री राम की अह्लादिनी शक्ति भगवती सीता है और 'रा' का अर्थ भगवान श्री राम । जीव पहले अह्लादिनी शक्ति भगवती सीता का नाम लेकेर परब्रह्म भगवान श्री राम को तुरंत हीं प्रसन्न कर लेता है, अतः सप्तर्षियों ने विचारकर 'मरा-मरा' जपने को कहा ।

दूसरा उत्तर (२). इसलिए उल्टा जाप करने को कहा ताकि वाल्मीकि मुनि को राम नाम का अमित प्रभाव पता चल जाए कि इसके उल्टा जाप करने से भी परम कल्याण हीं है। अन्य मंत्रो का सही से जाप न किया जाये तो वो लाभ के जगह हानि भी कर सकते हैं, पर राम नाम के साथ ऐसा नहीं है, इसी को प्रकाशित करने के लिए सप्तर्षियों ने वाल्मीकि को मरा मरा जपने को कहा।

तीसरा उत्तर (३).वाल्मीकि को भविष्य में भगवान श्री सीता-राम के माधुर्य का वर्णन करना था, अतः सप्तर्षियों ने उन्हें पहले "सीतायाः चरितम् महत्" अर्थात सीता जी की महिमा भी दिखानी चाही। नाम के प्रभाव से वाल्मीकि मुनि संसार के प्रथम माधुर्य-रस के कवि हो बन गए!

सप्तर्षियों ने उन्हें ऐसा मन्त्र देकर कहा कि जबतक हमलोग दुबारा यहाँ न आये तुम यहीं तप करो । वाल्मीकि मुनि को सप्तर्षियों ने जैसा कहा, उन्होंने वैसा हीं किया, उन्होंने उसी स्थान पे तप करना शुरू कर दिया।

एवं बहुतिथे काले गते निश्चलरूपिणः ।
सर्वसङ्गविहीनस्य वल्मीकोऽभून्ममोपरि ॥ ८३ ॥
ततो युगसहस्रान्ते ऋषयः पुनरागमन् ।
मामूचुर्निष्क्रमस्वेति तच्छ्रुत्वा तूर्णमुत्थितः ॥ ८४ ॥

हे राम! निश्चल रूप से (शरीर के बिना हिले डुले) तप करने के कारन उनके पुरे शरीर को चीटियों ने अपनी बांबी से ढँक दिया (अर्थात पुरे शरीर पे चीटियों ने अपना वल्मीक "मिट्टी के ढेर का घर" बना लिया)। इस प्रकार तप करते करते एक हजार युग बीत गयें, वे सप्तर्षि फिर से लौटें और उन्होंने मुझसे कहा कि अब वल्मीक से निकल आओ, यह सुनकर मैं तुरंत उठ खड़ा हुआ ।

वल्मीकान्निर्गतश्चाहं नीहारादिव भास्करः ।
मामप्याहुर्मुनिगणा वाल्मीकिस्त्वं मुनीश्वर ॥ ८५ ॥
वल्मीकात्सम्भवो यस्माद् द्वितीयं जन्म तेऽभवत् ।
इत्युक्त्वा ते ययुर्दिव्यगतिं रघुकुलोत्तम ॥ ८६ ॥

जिस प्रकार कुहरे को पार करके सूर्य निकलता है उसी प्रकार मैं 'वल्मीक' से निकल आया, तब ऋषियों ने मुझसे कहा, हे मुनिवर! इस समय तुम वल्मीक से निकले हो, अतः यह तुम्हारा दूसरा जन्म है और आज से तुम वाल्मीकि (नाम से जाने जाओगे) हो। हे रघुवर! ऐसा कहकर वो अपने दिव्यलोक को चलें गयें ।

अहं ते राम नाम्नश्च प्रभावादीदृशोऽभवम् ।
अद्य साक्षात्प्रपश्यामि ससीतं लक्ष्मणेन च ॥ ८७ ॥
रामं राजीवपत्राक्षं त्वां मुक्तो नात्र सन्शयः ।
[अध्यात्म रामायण २.६.८७-८८क ]

हे राम! आपके नाम के प्रभाव से हीं आज मैं ऐसा हो गया जो आपको, सीता जी को और लक्ष्मण जी को साक्षात् देख पा रहा हूँ। हे राजीवलोचन! आज आपके दर्शन से मैं वास्तव में मुक्त हो गया।


आदि कवि ब्रह्मर्षि वाल्मीकि मुनि ने आदि-काव्य श्री रामायण को प्रकट कर सम्पूर्ण संसार पे जो उपकार किया है, उसके लिए तीनों लोक सदा-सर्वदा वाल्मीकि मुनि को परम आदर सहित नमस्कार करेंगें, उन्हें स्वयं ब्रह्मा जी का वरदान प्राप्त है कि उनके लिखित रामायण में थोड़ी सी भी अशुद्धि नहीं होगी, प्रत्येक बात सत्य और सत्य होगी:

न ते वाक् अनृता काव्ये काचित् अत्र भविष्यति ॥ १-२-३५
कुरु राम कथाम् पुण्याम् श्लोक बद्धाम् मनोरमाम् ।

ब्रह्मा जी वाल्मीकि जी से रामायण में कहते हैं: हे मुनि! इस संसार पे कृपा हेतु परम पुण्यमयी श्री राम कथा को मनोरम रूप में आप श्लोक-बद्ध करेंगे, और उसमे तनिक भी (एक शब्द भी) असत्य न होगा।

यावत् स्थास्यन्ति गिरयः सरितः च महीतले॥ १-२-३६
तावत् रामायण कथा लोकेषु प्रचरिष्यति।

जब तक इस धरती पे पर्वत और नदियाँ रहेंगी तब तक इस लोक में श्री राम कथा का लोक में प्रचार रहेगा।

यावत् रामस्य च कथा त्वत् कृता प्रचरिष्यति॥ १-२-३७
तावत् ऊर्ध्वम् अधः च त्वम् मत् लोकेषु निवत्स्यसि ।

जब तक आपकी लिखी हुई श्री राम कथा का प्रचार रहेगा तब तक आपकी कीर्ति तीनों लोकों में विद्यमान रहेगी और आप मेरे लोक में निवास करेंगे।

इस प्रकार ब्रह्मर्षि वाल्मीकि की कीर्ति शाश्वत हो गयी! ब्रह्मा जी के अनुसार जब तक यह धरती है तब तक रामायण का प्रचार रहेगा, अतः भगवान के भक्तों को चाहिए कि श्री रामायण को गाते रहें जब तक इस धरती पे एक भी श्री राम-भक्त रामायण गायेगा तब तक हीं यह धरती सुरक्षित है।


कूजन्तं राम रामेति मधुरं मधुराक्षरम्‌।
आरुह्य कविताशाखां वन्दे वाल्मीकिकोकिलम्‌ ॥
[श्रीरामरक्षास्तोत्र]

कविता नामक पेड़ की शाखाओं में बैठ कर मधुर 'राम - राम ' का कूजन करने वाली [गुंजन करने वाली] वाल्मीकि नाम की उस कोयल को मैं प्रणाम करता हूँ।

जय श्री सीताराम!


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॥ श्रीसीतारामचंद्रार्पणमस्तु ॥